मेहनतकश औरतों के शोषण की इस व्यवस्था को बनाए रखने वाले समाज की नैतिकता व दर्शन इस व्यवस्था द्वारा निर्मित किए गए हैं व इसकी जरूरत हैं। इस व्यवस्था का खात्मा, वर्ग संघर्ष द्वारा किया जा सकता है जिसके लिए मेहनतकश पुरूषों व महिलाओं को एकजुट होकर इसे उखाड़ फेंकने के लिए तैयार होना पड़ेगा।
अनुवादक: जया सजल
इस समाज व व्यवस्था की अन्य बदहालियों के साथ ही, औरतों पर होने वाले अत्याचारों का अभिशाप न केवल बरकरार है बल्कि इस सामाजिक आर्थिक मंदी की गति के अनुसार और अधिक विकट भी होता जा रहा है। यह एक खासी विरोधाभासी स्थिति है कि अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस के दौरान औरतों पर होने वाली हिंसात्मक घटनाएं, आॅंनर किलिंग तथा अन्य जघन्य अपराध और सघन होते जा रहे हैं। इसके बावजूद इन अत्याचारों के खिलाफ बड़े पैमाने पर कोई विद्रोह नहीं हो रहा है। देश के मुल्लाओं व अन्य रूढि़वादी राजनेताओं ने इन प्रतिगामी ताकतों को अंधा समर्थन दिया है और यहां तक की ऐसे जघन्य अपराधों को बचाव का रास्ता भी मुहैया कराया है। उदारपंथी राजनीतिज्ञों तथा समाज सेवकों द्वारा चलाए जाने वाले विभिन्न अभियान महज खोखले व सतही साबित हुए हैं। यहां तक कि वहशी जनरल जिया उल हक की तानाशाही के दौरान औरतों पर थोपे गए भयानक कानून भी आज 24 सालों बाद तक जबकि देश में प्रजातंात्रिक संसद मौजूद है, हटाए नहीं जा सकें हैं।
वर्तमान समाज की सामाजिक तथा सांस्कृतिक रीति रिवाजों में पितृसत्तात्मक मानसिकता तथा पुरूष श्रेष्ठतावादी अवधारणा का प्रभुत्व कायम है। महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों व हिंसा पर अंकुश लगाने के लिए पारित प्रत्येक कानून सराहनीय है। किन्तु तमाम कानूनों के बावजूद, औरतों की दशा में बामुश्किल कोई परिवर्तन आया है और शोषित वर्गों से ताल्लुक रखने वाली बहुसंख्यक आबादी के जीवन की परिस्थितियों में ना के बराबर सुधार हुआ है। ये कामगार महिलाएं दुगुने या तिगुने तौर पर शोषण का शिकार है। वे काम की जगह पर, समाज में तथा परिवार में पुरूष श्रेष्ठतावादी रवैयों तथा यौन उत्पीड़न का शिकार बनती हैं। इसलिए औरतों के उत्पीड़न को महज लैगिक सवाल तक सीमित कर देना, उनकी परेशानियों का कोई हल नहीं है और ना ही लैंगिक आधार पर होने वाले इस शोषण के सामाजिक-आर्थिक मूलाधार को समझे बिना उनकी मुक्ति की कोई रणनीति बनाई जा सकती है। यह हमें मुक्ति के लिए किए जाने वाले संघर्ष में वर्गीय तथा लैगिक सवालों के बीच अन्तर संबंधो की एक समझदारी देता है।
आज पाकिस्तान में राजनीति, बिजनेस, कला तथा समाज के अन्य क्षेत्रों में अपनी पहचान व पकड़ बनाने वाली महिलाओं की संख्या बढ़ती जा रही है पर ये सभी महिलाएं शासक वर्ग अथवा मध्य वर्ग की हैं। उनकी समस्याएं, संकट व लक्ष्य मेहनतकश कामगार महिलाओं से पूरी तरह अलग हैं। यदि किसी निम्न वर्ग से कोई महिला इस सामाजिक-आर्थिक ढांचे के भीतर ऊपर उठती है तो वह तत्काल ही उच्च वर्ग का हिस्सा बन कर अपने मूल वर्ग से विलग हो जाती है। आखिरकार, भौतिक तथा सामाजिक परिस्थितियां ही चेतना का निर्धारण करती है, न कि चेतना इन परिस्थितियों को तय करती है। इस उदारवादी मानसिकता की प्रमुख समस्या यह है कि ये औरत को एक माल तथा प्रदर्शनकारी विज्ञापन मानने की सोच से मुक्त नही हो पाते हैं। यदि धार्मिक मत औरतों को पर्दे में रखने के पक्ष में है और उन्हें एक सम्पत्ति की तरह मानते हैं, तो इसके समानान्तर उच्च वर्ग औरतों को अपना व्यापार व मुनाफा बढ़ाने के हथियार के तौर पर इस्तेमाल करता है। यदि औरतों का अप्रत्यक्ष दमन पाशविक है, तो मुनाफे के लिए माल बेचने हेतु औरतों को नंगा करना उनकी मुक्ति का तरीका नहीं है। औरतों के साथ होने वाला भेद भाव, लालच और लोभ की अर्थव्यवस्था द्वारा स्थापित सामाजिक संबंधों के माध्यम से पनपता है। अतएव यह दृष्टिकोण उस सामाजिक मनोविज्ञान में गहरी पैठ बनाए हुए है जिसका निर्धारण उस व्यवस्था तथा समाज द्वारा होता है जिसमें उसका पालन पोषण हुआ है। इन भौतिक परिस्थितियों को, जिन पर यह सामाजिक-आर्थिक ढांचा टिका हुआ है, नष्ट किए बिना इस दृष्टिकोण से निजात नहीं पाया जा सकता है।
पूंजीवाद में औरतों द्वारा किए जाने वाले घरेलू तथा श्रम के कई अन्य रूपों को गंभीरता से नहीं लिया जाता है। घर की देखभाल, बच्चों का पोषण व उनकी परवरिश तथा समकालीन व्यवस्था द्वारा निर्धारित किए गए ऐसे अनेको मिलते जुलते काम अवैतनिक होते है, और इस तरह वे महिलाओं की भूमिका व आर्थिक स्तर को कमतर बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है। दूसरे शब्दों में, यह मुनाफे पर आधारित व्यवस्था को चलाने का परिणाम है जिसके लाभ की दर श्रम की कीमत गिराने से बढ़ती है। लेनिन ने प्राव्दा के 102 वें अंक में लिखा था किः ‘‘वर्तमान समाज अपने भीतर गरीबी व शोषण के ढेरों ऐसे मामले छिपाये हुए है जो तुरंत निगाह में नही आ पाते हैं। जीवन का अधिकांश वक्त, शहरी गरीब जनता के बिखरे परिवार, किसान, मजदूर, कर्मचारी तथा निम्न बुर्जुआ वर्ग अतुलनीय संकटों में रहकर काटते हैं और जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करने में बमुश्किल चैन ले पाते हैं। ऐसे परिवारों की लाखों औरतों घरेलू नौकरों की तरह रहती है, और अपना हर संभव प्रयास करके, एक एक पाई बचाकर परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति करती हैं। इन्हीं औरतों को पूंजीपति राजी खुशी घरेलू नौकरानियों के रूप में काम पर रख लेते है, जो कि खुद के व अपने परिवार के लिए रोटी के टुकड़े से थोड़ा अधिक कमा लेने की उम्मीद में अत्यधिक निम्न मजदूरी पर काम करने को तैयार हो जाती है।
आज के समाज में खाते पीते घरों की औरतों की जिंदगी घरेलू नौकरों, फैशन तथा शादी-विवाह समारोहों आदि के बारे में चर्चा करते हुए बीतती है। यह सब सम्पत्ति, सामाजिक स्तर, नौकरी अथवा उद्यम के सापेक्ष स्तरों में निर्धारित होता है। टीवी सीरियलों की मुख्य पटकथाएं तथा नाटक भी समाज में औरतों की एक खास छवि का निर्माण कर रहे हैं। यह विश्लेषण आगे चलकर धार्मिक कट्रपंथियों द्वारा निर्देशित होते है और औरत के एक तथाकथित ‘सचरित्र’ की व्याख्या करते हैं। यह सब इस शोषणकारी समाज की जरूरतों को पूरा करने के लिए उनकी भूमिका को जबरिया निर्धारित करने की कवायद है। घरेलू नौकरानियों तथा कामगार महिलाओं के जीवन की जरूरतें व विषयवस्तु नितान्त अलग हैं। घरेलू गुलामी की जंजीरें, जिसमें कि वे जकड़ी हुई है, तभी तोड़ी जा सकती हैं जब श्रम के मायने परिवर्तित हो जाएंगे। अध्यापन तथा पठन-पाठन को अपनी जद में लिए हुए है।
गुलामी की जिन जंजीरों में औरतें जकड़ी हुयी है वह तभी तोड़ी जा सकती है जब उत्पादन के साधन बदलेंगे। इस आर्थिक रूप से पिछड़े देश में एक औरत की आजादी वहाॅं से शुरू होती है जब उसे घरेलू इस्तेमाल के लिए दूर से बाल्टीयों में पानी भर के लानें के बजाय रसोई घर की टोंटी से पानी मिलने लग जायेगा। तकनीकि के विकास के साथ, घरेलू श्रम को पूरी तरह से आसान बनाया जा सकता है। सामूहिक रसोई घरों से लेंकर शिशु पाल्य गृहों तक का निर्माण, औरतों को बराबरी का दर्जा दिए जाने की राह में बड़ा कदम है। घरेलू हिंसा के अधिकतर मामले आर्थिक मुद्दों से जुड़े होते हैं, अतः बदहाली और भयानक तंगी भरे इस समाज में इसे कत्तई खत्म नही किया जा सकता है। फैक्ट्रियों तथा अन्य संस्थानों में महिला श्रमिकों को पुरूषों की तुलना में कम पगार मिलती है, यहाॅं तक की सबसे अधिक विकसित पूॅंजीवादी देशों में भी। आय की असमानता से लेकर वेश्यावृत्ति तक, औरतों के जीवन का मूल अभिशाप यह वर्ग व्यवस्था है जिसमें ऊपर से लेकर नीचे तक खून चूसने वाली जोकें भरी पड़ी है। समाज पर थोपी गयी मूल्य मान्यताएॅं तथा नैतिकताएं जान बूझ कर इस तरह बनायी गयी है ताकि मेहनतकश औरतों के शोषण को ढंग से जारी रखा जा सकें। पितृ सत्ता भी इसी शोषणकारी व्यवस्था का ही एक उत्पाद है। इस व्यवस्था को खत्म करने का एक मात्र तरीका है - वर्ग संघर्ष, जहाॅं मेहनतकश पुरूषों व महिलाओं को इसे उखाड़ फेंकने के लिए एकजुट होना पड़ेगा। कोई भी अन्य प्रवृत्ति जो इस वर्गीय एकता को भंग करती है, चाहें वह नारीवाद हो, राष्ट्रवाद हो, धर्म या फिर अन्य कोई पूर्वाग्रह, निश्चित रूप से वह प्रतिक्रियावादी तथा प्रतिगामी प्रवृत्ति ही होगी।