शनिवार, 17 दिसंबर अरब क्रानित की पहली वर्षगांठ का दिन था। एक साल पूर्व इसी दिन, एक युवा टयूनीषियार्इ विक्रेता मोहम्मद बोआजिजि ने अपनी तंगहाली, गरीबीतथा क्षेश्म के चलते सिदि बोउजिद नाम शहर में आग लगा ली। उसकी मौत के बाद, सबसे पहले दक्षिणी टयूनिशिया, फिर पूरे देश ओर उसके बाद सीमाओं को लांघ कर सम्ूर्ण अरब जगत में उठ खड़े होने वाले क्रानितकारी अंगार को मानव इतिहास के लिए एक टर्निग प्वाइंट के रूप में चिनिहत किया जाएगा।
इस घटना के एक साल बाद भी, यह स्पष्ट है कि क्रानित किसी भाी प्रकार से समाप्त नहीं हुर्इ है। क्रानित की वस्तुगत परिसितथयां कभी भी इतनी अनुकूल नहीं रही जैसी की अब हैं तथापि, क्रानित कोर्इ एकांकी नाटक नहंी है। क्रानित के शुरूआती दिनों में होने वाला भारी उथल पुथुल से भरा परिदृश्य अब मुख्य अन्तर्विरोध को हल करने के लिए आवश्यक गंभीर विष्लेशणों से भरा हुआ है।
मुहम्मद बोआजिजि को अरब क्रानित का प्रथम शहीद माना गया है। उसकी छोटी सी जिंदगी जो कि बेरोजगारी, गरीबी, तंगहाली तथा एक उत्पीड़क व भ्रष्ट राज्य तंत्र के खिलाफ रोजना किए जाने वाले संघर्षों की एक बानगी रही, करोड़ो अन्य अरब युवाओं की जिंदगी के रूप में परिलक्षित होती है।
16 साल की उम्र से ही, 11 सदस्यों के परिवार का पालन पोषण करने वाले एकमात्र आधार के रूप में, बोअजिजि ने एक फल विक्रेता की तरह रहते हुए जीविका कमाने हेतू काफी संघर्ष किया। नौकरी के लिए दी गर्इ सभी अर्जियों के निरस्त हो जाने के बाद, उसने सेना में भर्ती होने का भी प्रयास किया पर कोर्इ प्रतिफल नहीं मिला। उसके दोस्तों व परिवारजनों के अनुसार, बचपन से लेकर सालों बाद तक स्थानीय पुलिस अफसरों ने बोअजिजि को निशाना बनाकर उससे काफी दुव्यर्वहार किया, जिसमें उसके बिक्री हेतु पदार्थों से भरे छोटे से लकड़ी के ठेले को अक्सर तोड़ा जाना शामिल था, परन्तु चुंकि बोअजिजि के पास कमार्इ का कोर्इ अन्य जरिया नहीं था, इसलिए उसने रेहड़ी वाले की तरह काम करना जारी रखा। अपनी मौत के दस माह पूर्व उसने आत्महत्या की कोशिश की जिसके एवज ने पुलिस ने 400 दिनारेां का (280 डालर) उस पर जुर्माना लगा दिया यह रकम उसकी दो माह की कमार्इ के समतुल्य थी।
17 दिसंबर 2010 के दिन, उसने बिक्री किए जाने वाले फलों को खरीदने हेतु कही से लगभग 200 डालर उधार लिए। बाजार जाते वक्त, रास्ते में उसे एक महिला पुलिस कर्मी मिली जिसने उस पर वि्रकेता परिमिट- जो कि कानून के लिहाज़ से जरूरी ही नहीं है- न होने का आरोप लगाते हुए उसे पकड़ लिया। बोअजिजि के पास उस पुलिस अफसर को घूस देने के लिए अलग से कोर्इ रकम नहीं थीं। इस कारण पुलिस उससे उसके बटखरे लेने हेतु आर्इ परन्तु बोउजिजि ने उन्हें देने से साफ इन्कार कर दिया। दोनो एक दूसरे से गाली गलौच करने लगे, इतने में उस महिला पुलिस कर्मी ने उसे एक थप्पड़ मार दिया, उसके चेहरे पर थूक दिया, उसके इलेक्ट्रानिक बटखरे को तोड़ दिया और उसको फलों के ठेले को एक तरफ ढकेल दिया। उसके बाद, सहकर्मियों की मदद से उन सब लोगो ने बोउजिजि को जमीन पर लिटाकर बुरी तरह पीटा।
सार्वजनिक तौर पर अपमानित बोउजिजि स्थानीय म्यूनिसिपालिटी पर गया और वहां उसने एक अधिकारी से मिलने की मांग की। उससे बताया गया कि वह अधिकारी किसी मीटिंग में व्यस्त था। तत्पश्तात वह एक पेट्रोल का डब्बा लेकर म्यूनिसिपल आफिस की ओर वापस आया। भरी टै्रफिक के बीच में खड़े होकर वह चिल्लाया, तुम सब मुझसे रोजी रोटी कमाने की उम्मीद किस प्रकार रखते हो और फिर उससे कपड़ो पर पेट्रोल छिड़कर स्वयं को आग लगा ली।
निराशा में उठाया गया यह कदम अपने आप में विलग नहीं है, बलिक वास्तव में यह भावना के आवेग में किया गया स्वबलिदान है। बोअजिजी के अन्दर उत्पन्न यह भावना किसी असाधारण प्रवृतित के कारण नहीं बलिक सम्पूर्ण अरब दुनिया में उन करोड़ों मजदूरों व गरीबों की दयनीय हालत के कारण पैदा हुर्इ जो समान परिसिथतियों को झेल रहे हैं और अपनी हालत को और अधिक बर्दाश्त कर पाने की सिथति में नहीं हैं।
वास्तव में वे अचेतन तौर पर इस पूंजीवादी व्यवस्था का विरोध कर रहे हैं जो कि अब जनता को बुनियादी रियायतें देने के काबिल भी नहीं हैं। इस इलाके की एकाधिपत्यवादी शासन सत्ताएं स्वयं में महज विरोधाभासी सिथति का प्रगटीकरण हें जिसमें एक हाथ पर उत्पादक शकितयों के उच्च विकास तथा जनता की इस सिथ्ति को विकसित कर उनके जीवन स्तर को ऊपर उठाने की आकांक्षा के बीच अन्र्तविरोध है तथा दूसरी ओर सत्ता की समाज को विकसित कर पाने तथा उन संभावनाओं तक पहुंच पाने की जैविक अक्षमता है।
90 के दशक के अन्त से लेकर 2008 तक, यूरोप तथा अमेरिका में बैठे अपने आकाओं के साथ एक विकसित होती सत्ताधारी अल्संख्यको की छोटी जमात अरब दुनिया में करोड़ों डालरों में उब-डूब हो रही थी। बेन अली, गददाफी, असद तथा मुबारक विश्वयुद्ध के बाद के समय में हुर्इ अरब क्रानित के खिलाफ होने वाली प्रतिरोध क्रानित के ये सभी नेता पूंजीवाद के जादू की तारीफ करने नहीं अघा रहे थे। अपने देशों को स्वयं के निजी साम्राज्यों के रूप में चलाने वाले ये नेता, राज्य-स्वामित्व वाले उधोगों को पूरी तरह बेचने की योजना में रत थे, उन उधोगो को जो कि राष्ट्रीय जनवादी क्रानित के प्रशस्त रत्न थे।
बेशक उसे दौर में पूंजीवाद प्रगति पर कर रहा था, पर जनता को देने के लिए उससे पास संवाद्र्धित उत्पीड़न तथा कजोर्ं में बढ़ोत्तरी के अलावा कुछ नहीं था। अरब देश में बेरोजगारी की दर दुनिया में सबसे अधिक है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार यहां की जनता का 40 प्रतिशत हिस्सा 2 डालर प्रतिदिन से कम राशि पर अपना जीवन बसर करता है।
अरब देशों के वीर युवाओं ने स्वयं को क्रानित के अगि्रम दस्तों में रख कर आत्म बलिदान की गहन भावना का परिचय दिया है। अरब देशों की 3500 करोड़ की आबादी की 60 प्रतिशत से अधिक आबादी 30 से कम आयु वर्ग की है। इन से एक बड़े हिस्से के पास नौकरी पाने व एक समृद्ध भविष्य की क्षीण संभानाएं है। युवाओं में बेरोजगारी की दर लगभग 40 प्रतिशत है जो कि कुछ क्षेत्रों में 80 प्रतिशत तक पहुंच गर्इ है 2005 की बी.बी.सी. रिपोर्ट के अनुसर मिश्र में नए स्नातकों की संख्या 7,00,000 थी जबकि रोजगार की संख्या महज 2,00,000 थी।
असितत्व के लिए किए जाने वाले दैनिक संघर्षो के इतर लोकतांत्रिक अधिकारों का उच्च पैमाने पर दमन तथा भ्रष्टाचार का बड़ा पैमाना सभी सामाजिक बंधनों समेत छाती पर शिला के समान कायम है। अरब क्रानित के प्रारम्भ के पूर्व, अवसाद-निराशावाद तथा नकारात्मक मन:सिथति की सघन धुंध अरब दुनिया की गलियों में छा गर्इ थी।
ये सभी अरब क्रानित के फूट पड़ने के वासितविक कारक हैं। पर बुजर्ुआ प्रयोगवादियों के लिए समाप्त अध्याय है। उनके लिए इतिहास महज चंद आकसिमक घटनाओं की श्रृंखला है। हम, करोड़ो मजदूरों व युवाओं के साथ, मोहम्मद बेउजिजि की यााद का सम्मान करते हैं। तथापि निरपेक्ष अर्थों में हम यह समझते हैं कि वह एक दुर्घटनावश घटी परिसिथति थी, जिसने उन सैकड़ों पुरूष महिलाओं की जिंदगियों की झलक दिखालार्इ जिन्होंने इस अरब संसार पर लम्बे समय से राज कर रहे अधिकारी सत्ताओं में किसी न किसी तरह अपनी जिंदगी गवार्इ है। क्रांति की परिसिथतियां तैयार है वह व इस काल में हुए पूंजीवादी विकास की समयावधि द्वारा तैयार की हुर्इ हैं।
इस आन्दोलन से प्राप्त हुइ सफलताएं
एक बार शुरू हो जाने के बाद, इस क्रानित की गति अथमनीय हो गर्इ। यहां पर इस क्रानित की बरीकियाें में जाने की जरूरत नहीं है।, क्योंकि वे विस्तृत रूप से और जगहों पर विश्लेषित है। तथापि, हमें उसकी मुख्य सफलताओं को संज्ञान में लाना जरूरी है। प्रारिम्भक तौर पर, इसने सम्पूर्ण अरब जगत को ताकत की जबर्दस्त परिघटना के बहाव में ला खड़ा किया है। एक माह से भी कम समय के भीतर 24 वर्षों से टयूनिशिया के तानाशाह रहे जिन अल अवीदीन बेन अली को जनता के विद्रोह तथा कामगार वर्ग की लामबंदी ने उखाड़ फेंका। आधुनिक अरब इतिहास में पहली बार, किसी तानाशाह को एक लोकप्रिय जनक्रानित ने पदच्युत कर दिया। इन घटनाअेां ने संपूर्ण अरब जगत में स्तब्धकारी तरंगें संचालित कर सभी देशों की जनता को आगे का रास्ता दिखाया है।
निराशा के वातावरण का अंत हो गया है और आत्मविश्वास से भरे हुए करोड़ों युवा पुरूष-महिलाओं, मजदूरों व गरीबों ने इस खालीपन को भर दिया है। एक माह से भी कम समय में दूसरे तानाशाह को भी उखाड़ फेंका गया। इस बार यह तानाशाह इस क्षेत्र के सबसे बड़े व महत्वपूर्ण देश का था। मध्य एशिया व उत्तरी अमेरिका का सम्पूर्ण परिदृश्य बदल गया है। विशालकाय उत्पीड़क मशीनें जो एक हफ्ते पहले तक पूर्ण ताकतवर प्रतीत होती थंी अब ढ़ह रही थी, या फिर मूक दर्शको में तब्दील होती जा रही थीं। दशकों से जिन विचारों को पशिचमी मीडिया द्वारा बढ़ा चढ़ाकर पेश किया जा रहा था कि अरब जगत की जनता इतनी पिछड़ी है कि वह एक विशेष प्रकार के मध्यकालीन धार्मिक तानशाही के तहत रहना पसंद करती है- उनका पूर्णत: पर्दाफाश हो गया। इसके विपरीत, विश्व ने जो सत्य देखा उसमें पशिचमी पूंजीवाद का घृणास्पद व दोगला चरित्र स्पष्ट तौर पर दृषिटगोचर था।
जो लोग वर्षों से अरब जगत के गैर-लोकतांत्रिक चरित्र के बारे में बारे में शिकायतें करते थे वे सब अचानक उसी तानाशाही के पक्ष में कतारबद्ध हो गए जिसका कि वे बरसों से खंडन करते आ रहे थे। अपने एक टीवी शो में, बराक ओबामा ने ढेरो शब्दों में इस बात की अपील की कि मुबारक की सत्ता के ढहने का आàवान न किया जाए, यह उस घृणास्पद घटनाओं में से एक घटना रही।
अरब क्रानित ने न केवल मध्य एशिया बलिक सम्पूर्ण संसार के भीतर समाजो में वर्ग रेखाएं खींच दीं। इसके एक ओर अरब जगत तथा पशिचमी पूंजीवाद की आधिपत्यवादी राज सत्तांए थी जो इस जन आंदोलन के ज्वार को रोकने में जुटी हुर्इ थंी तथा दूसरी ओर थी शोषित जनता जो कि उत्पीड़न व बदहाली के खिलाफ धार्मिक, राष्ट्रीय तथा जातीय खेमों से ऊपर उठकर एक जुट हो गर्इ थी।
इन घटनाओं की रोशनी मं 'सभ्यताओं के भिड़न्त के तथाकथित सिद्धान्त का 100 फीसदी अन्त हो गया। यह विचार, जिसे सैमुअल हंडिंगटन द्वारा सामने लाया गया था, यह कहती थी कि वर्ग संघर्ष की समाप्ती के पश्चात भविष्य में सभ्यताओं की पारस्परिक भिड़त इतिहास की गति को निर्धारित करेगी। यह अवैज्ञानिक तथा प्रतिगामी विचार पिछले देा दशकों से बुर्जुआजी विचारधारा का स्तंभ बना हुआ था।
इस क्रानित ने सभी विचारों व पूर्वाग्राहों को ढहा कर बुजर्ुआ शासन की चूलें हिला दीं। परन्तु इसकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण सफलता रही विश्व भर की अरबों की संख्या में मजदूरों व गरीबों के दिमागों में जन क्रानित गतिविधियों के मौजूदा विचार को रोपना। और आखिरकर यह घृणित तानाशाहियों को उखाड़ फेंकने में वास्तविक सफलता की रणनीति के रूप में परिणित हुर्इ। दशकों से, फिलिस्तीनी जनता के नेतृत्व ने आजादी के संघर्ष को आंतकवाद की राह पर डाल रखा है, जिसके अन्तत: इजराइल की राजसत्ता को सुदृढ़ ही का कार्य किया हैं। लेकिन ये सभी प्रवृतित्तयां तथा क्रानित के महान उभार के दशकों से अरब शासकों की मेजों की जूठन के लिए लालायित 'सुधारवादी तत्व तथा गैर सरकारी संगठन भूत काल के बचकाने दिवास्वप्नवादियों में तब्दील हो गए। प्रथम जन उभार के तत्काल बाद ही कठोर तानाशहियों का रूख अचनाक ही मृदु हो लगा।
जार्डन में, जनता को खुश करने के लिए, बादशाह अब्दुल्लाह ने कुछ 'सुधारों का वादा किया है, विशेषकर विवादस्पद चुनावी कानूनों के संदर्भ में। प्रधान मंत्री ने तेल तथा चावल, चीनी, र्इंधन व रसोर्इ गैस जैसे बुनियादी पदार्थों पर 550 मिलियन डालर की नर्इ सब्सीडि की घोषणा की है। उसने सरकारी नौकरों तथा सुरक्षा कर्मियों के वेतनमान में वृद्धि करने की घोषणा भी की हैं।
सीरिया में, सरकारी ने गरीबों की मदद के लिए रियायतों की घोषणा की है। शिक्षकों को लैपटाप के लिए ब्याज मुक्त कर्ज दिए जाने प्रस्ताव पास हुआ है, जबकि अलप्पू शहर में कुछ अधिकारियों पर भ्रष्टााचार का आरोप लगा है। इसके अतिरिक्त दो मिलियन सरकारी कर्मचारियों को उनकी मजदूरी में 17 प्रतिशत की वृद्धि मंजूर की गर्इ है, यह कदम असंतोष के उभरते ज्वार को थामने हेतू बदहवासी मे किया गया प्रयास था।
कुवैत के अमीर, शेख सबह अल अहमद अल सबह ने प्रतयेक कुवैती नागरिक के लिए 1000 दिनारों तथा मुफ्त खाध कूपनों के अनुदान की घोषणा की है। सऊदी अरेबिया के बादशाह अबदुल्ला ने सरकारी क्षेत्रों की नौकरियां व सेवाओं के लिए 93 बिलियन डालर देने का वादा किया है। कतर ने निजी क्षेत्र के कर्मचारियों के लिए वेतन व सुविधाओ में 60 प्रतिशत बढ़ोत्तरी तथा कुछ सैन्य बलों के लिए 20 प्रतिशत बढ़ोत्तरी की घोषणा की है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि जनता ने - विशेषकर टयूनिशिया, र्इजिप्टत था लीबिया की उन जनतांत्रिक अधिकारों की वकालत की है जिन्हें पुरानी राजसत्ताएं कभी स्वीकृति नहीं देती। तथापि सरकारी तौर पर कानून के रूप में घोषित न होने के बावजूद वाणी संगठन तथा सभाओं की स्वतंत्रता इन देशों में स्थापित हो गर्इ है।
र्इजिप्टत के ैब्।थ् द्वारा हड़तालों को अवैध घोषित करने के प्रयास पूर्णत: ढह गए चुंकि जनता को किसी भी प्रकार ये कानून मंजूर नहीं थे।
लोकतंत्र
यह बहस का विषय हो सकता है कि- हालांकि अभी भी एक लंबा रास्ता तय किया जाना शेष है- तथापि इन देशों में, जहां क्रानित अपने प्रथम चरणों में जीत की कगार पर है कुछ हद तक लोकतांत्रिक अधिकार हासिल कर लिए गए हैं। परन्तु जनता के लिए प्रजातंत्र का अर्थ अंत के सिवा कुछ नहीं है। जब तक कि इन अधिकारों का उपयोग जनता की जिंदगी बेहतर बनाने में नही होता तब तक इनका महत्व उन कागजों की कीमत से अधिक नहीं है जिन पर ये दर्ज हैं। मजदूर जिसने आवाज तथा संगठन के लिए लड़ार्इ लड़ी है वह इन औजारों का इस्तेमाल अपने मालिक से अधिक मजदूरी पाने के लिए संगठित हो प्राप्त करने में करेंगे। यही वह प्रक्रिया है जिसके कि हम गवाह रहे हैं।
हांलाकि सतह पर सब कुछ बदल चुका है। परन्तु यहां यह बात उतनी ही सत्य है कि वस्तुगत तौर पर बुनियादी चीजें पूर्ववत ही है। राज्य सत्ता का पुराना ढांचा अभी भी सुदृढ़ है तथा अर्थव्यवस्था पर अभी भी शासक वर्ग का प्रभुत्व है जिसे पराजित मान लिया गया था। तथापि यह विस्फोटित होने वाला है। आर्थिक परिसिथतियां पूर्ववत हैं। उदाहरण के तौर पर, र्इजिप्ट में, जो कि वैशिवक आर्थिक मंदी द्वारा ग्रस्त है तथा क्रानित के उपरांत असिथरता का शिकार रहा है।
श्रम मांग सूचकांक के अनुसार, पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष अक्टूबर मे म्हलचजपवद मजदूरों की मांगाें में 54 प्रतिशत की कमी आर्इ है। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार म्हलचज में बेरोजगारी दर, 2011 के तीसरे चतुर्थाश में 11.9 प्रतिशत तक पहुंच गर्इ, जो कि पिछले 10 सालों मे सबसे अधिक वृद्धि दर रहा। 8.9 प्रतिशत से सीधे 11.9 प्रतिशत, इन वास्तविकताओं के आधार पर, मजदूर तथा गरीब जनता क्रानित के शुरूआती दौर से लेकर अब तक बार बार गोलबंद होती रही है। म्हलचज में, सितम्बर माह में ही, 500000 से 750000 के बीच की संख्या में लोगों ने हड़ताल किया। इनमें, अध्यापकों ने, जो कि इसमे महत्वपूर्ण भूमिका में थे, शिक्षा मंत्री को बर्खास्त करने, जन शिक्षा में निवेश किए जाने, शिक्षकों का मासिक वेतनमान कम से कम 1,200 म्हलचजपवद च्वनदक किये जाने, स्कूल निर्माण कार्यक्रम तथा अध्यापकों (स्थार्इ व अस्थार्इ) के लिए स्थायी अनुबंधों की मांगे रखीं।
टयूनिशिया में भी, मजूदर वर्ग तथा युवा वर्ग आत्मविश्वास से लबरेज़ हैं तथा अपने लक्ष्य की प्रति हेतू प्रत्यक्ष क्रानितकारी गतिविधियों को संगठित करने में लगे हुए हैं।
हाल ही में, बेरोजगार स्नातकों के यूनियन ;न्क्ब्द्ध जिसने क्रानित के दौरान मुख्य भूमिका निभार्इ थी, ने 500 लोगों की भागीदारी के साथ ैवनेेम में एक राष्ट्रीय सभा आयोजित की, जिसमें पूरे देश के प्रतिनिधी शामिल थे। वामपंथी टे्रड यूनियन कार्यकर्ताओं के साथ किए गए एक सामूहिक प्रदर्शन में अगस्त 15 को टयूनिशिया में करीब 10000 लोग एकत्रित हुए जो कि रोजगार , सामाजिक न्याय तथा पुरानी सत्ता के लिए जिम्मेदार व्यकितयों के लिए दंड की मांग कर रहे थे।
भविष्य मे अब और आधिक सिथरता बरकरार नहीं रहने वाली है। उन देशों में भी नहीं जहां तानाशाही को उखाड़ फेंक दिया गया है। इसके विपरीत निश्चय ही चुंकि जनता अपने स्वयं की ताकत को लेकर आत्म विश्वास से लबालब है, जब तक कि मुख्य अन्तर्विरोध हल नहीं हो जाते हैं, भविष्य अभी और उथल पुथल लेकर आएगा और बेशक क्रानितयां भी।
राज्य और क्रानित
क्रानित के प्रारमिभक चरणों के बाद, जबकि सभी देश कमोबेश एक रास्ते पर चल रहे थे, आंदोलनों ने विभिन्न रूपों में विकासित होन की प्रक्रिया अखितयार कर ली।
म्हलचज तथा टयूनिशिया में, क्रानित ने प्रारमिभक परन्तु अधूरी विजयें सापेक्षतया तुरंत-फुरंत प्राप्त कर लीं। जनता के बीच म्नचीवतपं की मनसिथति पैदा हो गयी जिसने आखिकार दशकों की उत्पीड़नकारी ताकतों का ध्वंस कर दिया। उनके विचार से मुबारक तथा बेन अली का खात्मा समाज के स्थार्इ विकास की सुनिशिचतता के लिए काफी था। अतएव क्रानित ने राज्यसत्ता के पुराने उपकरणों को वैसे ही अनछुआ छोड़ दिया।
आज वही उपकरण इन दोनों ही देशों में क्रानित के लिए सर्वाधिक बड़े व एकमात्र बाधा के रूप में खड़े हैं। टयूनिशिया में जनता तथा राज्य उपकरणों के बीच निरंतर मुठभेड़े हो रही है।
म्हलचज में भी सिथति समान ही है। सेना ने मुबारक की मुखालफत की, इसलिए नहीं कि वे ैब्।थ् की क्रानितकारी जज्बे से प्रभावित थी बलिक इसलिए कि उसके पास कोर्इ अन्य विकल्प नहीं था। यदि वह क्रानित के खिलाफ खुलकर खड़ी हो गर्इ होती तो शायद उच्च सैन्य अधिकारी के हाथ से सेना का नियंत्रण फिसल जाता। ज्यादा से ज्यादा उन्हें नागरिक युद्ध का सामना करना पड़ता जिसमें की जीतने की कोर्इ गांरटी नहीं थी। इसलिए उन्होंने खुद को क्रानित के शीर्ष पर रखने का रास्ता चुना ताकि वे इसे छिन्न भिन्न कर राजसत्ता के विघटन को रोक सकें।
आज म्हलचजपंद जनता के लिए ैब्।थ् की भूमिका अधिकाधिक रूप से स्पष्ट होती है जा रही है। जब कि उच्च जनरलों के अपने स्वतंत्र एजेन्डा हो सकते हैं। ताथापि उनकी मुख्य भूमिका आज पुराने साम्राज्य तथा म्हलचजपंद पूंजीवाद के हितों की रक्षा करने की है। क्रानित के इस पूरे समयकाल में 12000 से भी अधिक क्रानितकारियों को सैन्य बन्दीगृहों में ठूंस दिया गया है और प्रतिरोध के दमन का एक सुव्यवसिथत तरीका इखितयार किया जा रहा है। नवम्बर के आखिरी हफ्ते के दौरान, 40 से भी अधिक लोगों की हत्या कर दी गर्इ तथा कर्इ हजार लोग घायल हो गए जबकि सेना ने तहरीर चौक को खाली कराने की कोशिश की। राज्यसत्ता वैयकितक तौर पर कोर्इ भेदभाव रहित निकाय नहीं है जो कि पूरे समाज का प्रतिनिधित्व करती हेा। माक्र्स तथा एगेल्स ने इस बात को कर्इ बार स्पष्ट किया है कि राज्य सत्ता, अपने आखिरी तौर तरीके में महज सशस्त्र लोगों एक निकाय है जो कि शासक वर्ग की सम्पत्ति की हिफाजत करता है। टयूनिशिया तथा म्हलचज के मजदूर इस कठोर सत्य को अब सबक के रूप में ले रहे है। हालंकि पुराने तानाशाहों का अंत हो चुका है तथापि राज्य सत्ता अपनी जगह पर सलामत है।
बुजर्ुआ राज्यसत्ता को जो कि पूंजीवादी अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व करती है- मजदूरों के राज्य में विस्थापित किया जाना चाहिए जो कि बहुसंख्यक आबादी के प्रतिनिधि हैं। ऐसी राज सत्ता मजदूरों की लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुर्इ, उत्तरदायी तथा जबाबदेह कमेटियों के रूप में फैकिट्रयों तथा लोकप्रिय पड़ोसियों में होगी जो कि देश में प्रत्येक स्तर पर जुड़ी हुर्इ होगी।
स्वेज में मुबारक के पतन के बाद राजसत्ता 4-5 दिनों के लिए पूरी तरह ध्वस्त हो गर्इ। टयूनीशिया में शुरू में, क्रानितकारी कमेटियों तथा सशस्त्र निरीक्षण बिंदुओं की स्थापना लोगों का बचाव करने हेतू की गर्इ थी। यह घटना पुन: यह दिखाती है कि सेवियतों यानि मजदूरों की काउनिसलें माक्र्सवाद का स्व उत्पाद न होकर वास्तविक क्रानित में स्वाभाविक तौर पर पैदा होती है।
सीरिया में ही, क्रानितकारी कमेटियां पूरे देश में पैदा हो गर्इ है और आज हड़तालों तथा चल रहे सशस्त्र विद्रोह को संगठित कर रही है।
यह घटना राज्य सत्ता के चरित्र के बारे में केन्द्रीय सवाल उठाती है। क्रानित ने पुरानी राजसत्ता को घुटनों के बल गिरा दिया है। इसे एक नर्इ शकित के माध्यम से विस्थापित किया जाना चाहिए। समाज की ताकत किसी भी राजसत्ता से अधिक शकितशाली होती है। यह ताकत है क्रानितकारी जनता की ताकत, लेकिन यह संगठित होनी चाहिए। मिश्रा तथा टृयूनीशिया दोनों जगहों की, क्रानितकारी कमेटियों में दुगुने ताकत वाले तत्व थे। इन कमेटियों ने समस्त शहरो व इलाकों को अपनी जद में ले लिया।
टयूनिशिया में, जनता का क्रानितकारी संगठन मिश्र से कहीं अधिक आगे गया। इसके निकायो ने जो कि कर्इ मामलों न्ळज्ज् टे्रड यूनियन की स्थानीय इकार्इयों के इर्द गिर्द संगठित थे, पुराने त्ब्क् की सत्ता तथा सथानीय अधिकारियों को बर्खास्त करने के बाद, तमाम शहरों तथा कस्बों, यहां तक कि संपूर्ण क्षेत्र में समाज के समस्त चलायमान निकायों पर कब्जा कर लिया। शासक वर्ग की ओर से आने वाल 'अराजकता तथा सुरक्षा हीनता जैसी सभी अनर्गल बातों के उलट वास्तविक तथ्य यह है कि मेहनतकश जनता ने सुव्यवस्था तथा सुरक्षा की गांरटी के साथ स्वयं को संगठित कर लिया था, लेकिन यह सुव्यवस्था भिन्न प्रकार की थी, यानि एक क्रानितकारी सुव्यवस्था।
मिश्र में, 28 जनवरी को पुलिस बल के ढहने के बाद लोगों ने अपने आस पड़ोस की सुरक्षा की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। उन्होंने चेक पाइन्ट स्थापित किए, खुद को चाकुओं, तलवारों छडि़यों से लैस कर लिया और बाहर भीतर आने जाने वाली कारों का निरीक्षण शुरू कर दिया। कुछ क्षेत्रों में, इन प्रचलित कमेटियों ने अपरोक्ष रूप से शहर के संचालन, यहां तक कि टै्रफिक व्यवस्था भी, अपने हाथ में ले ली।
जैसे ही भविष्य में क्रानित और आगे बढ़ेगी और तीव्र होगी, ये तत्व पुन: उठ खड़े होंगे। स्थानीय तथा राष्ट्रीय आधार पर उनको एक साथ सूत्रबद्ध करना तथा फिर सत्ता पर कब्जा करना एक फौरी कार्यभार हेागा। राज सत्ता के पुराने उपकरणों जो कि प्रतिक्रानित के गढ़ हैं, को बने रहने देने का अर्थ होगा, पुरानी सत्ता को दांव पेच करने व गुटबंदी करके क्रानित पर पटल वार करने का मौका प्रदान करना।
लीबिया और सीरिया
जबकि मिश्र तथा टयूनिशिया में क्रानितयों ने तानाशाह को उखाड़ फेंकने में सापेक्षत: काफी तीव्रता दिखार्इ, वहीं लीबिया तथा सीरिया में इस प्रक्रिया ने दूसरा तरीका आखितयार किया। इसका एक कारण था कामगार जनता का आंदोलन मे हस्तक्षेप। मार्च 2011, को हमने लिखा था:
ßटयूनिशिया में जन प्रदर्शनों ने बेन अली को निर्वासित होने पर बाधित कर दिया तथा शासन रसत्ता को उखाड़ फेंका। इस बात ने तमाम मिश्र वासियों के दिमाग मे यह बाद स्थापित कर दी कि उनका शासक वर्ग भी उतना ही क्षणभंगुर है। समस्या यह थी कि मुबारक ने हटने से इंकार कर दिया। सभी महामानवीय प्रयासों तथा प्रदर्शनकारियों के साहस के बावजूद ये प्रदर्शन मुबारक को उखाड़ फेंकने में असफल रहे। जन प्रदर्शन अत्यत्न महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वे जनता को मजबूती से खड़ा करके, उनके भीतर आत्म शकित की भावना जागृत करने के तरीके हैं परन्तु आंदोलन तक तक सफल नहंी हो सकता जब तक कि उसे एक नर्इ व पहले से अधिक ऊंचार्इ पर ले जाया जाता है। यह कार्य श्रमिक वर्ग ही कर सकता है। Þ
सर्वहारा का यह पुनर्जागरण, पिछले वर्षों में हड़तालों व प्रदशनों की लहर जरिए अभिव्यकित होता है। यह उन प्रमुख कारकों में से एक था जिसने क्रानित की भूमिका तैयार की। यह भविष्य की सफलता की भी एक कुंजी है। इतिहास के मंच पर मिश्र के सर्वहारा की शानदार प्रविषिट ने क्रानित की तकदीर में एक नया रूख पैदा कर दिया। इसी ने क्रानित की रक्षा की और मुबारक को उखाड़ फेंकने में मदद की। मिश्र के मजदूरों ने एक के बाद एक शहरों में हड़तालें आयोजित की। उन्होने फैकिट्रयों से घृणित मैनेजरों तथा भ्रष्ट टे्रड यूनियन नेताओं को निकाल बाहर किया।Þ
क्रानित एक सापेक्षतया उच्च स्तर पर चली गर्इ। यह एक प्रदर्शन से तब्दील होकर राष्ट्रीय जन विद्रोह बन गर्इ। इससे क्या निष्कर्ष निकाले जा सकते है ं? महज यह कि जनवादी अधिकारों के लिए किए जाने वाले संघर्ष को जीत तभी मिल सकती है जब कि उसकी अगुआर्इ वह सर्वहारा कर रहा हो, जिनकी मर्जी के बिना एक वल्ब तक नहीं जल सकता, ना ही कोर्इ टेलिफोन बज सकता है और ना तो एक पहिया ही हिल सकता है।Þ
कुछ शासन सत्ताएं महज सड़कों पर प्रदर्शनों के द्वारा उखाड़ी जा सकती हैं, जबकि कुछ के साथ मामला इतना आसान नहीं होता। मिश्र तथा टयूनीशिया में भी मुख्य जानलेवा आघात तभी लगा जब इस आन्दोलन में आम हड़ताल के रूप में श्रमिक वर्ग का पदार्पण हुआ। श्रमिक वर्ग के इस प्रकार की प्रत्यक्ष भागीदारी का आभाव सीरिया तथा लीबिया की क्रानितयों की कमजोरी रही।
यह बात संज्ञान में रखने की है कि इन दोनों राज सत्ताओं का चरित्र मुबारक तथा बेन अली की शासन सत्ता से भिन्न था। सर्वाधिक महत्वपूर्ण यह है कि, इन दोनों सत्ताओं का अपने वाम झुकाव वाले अतीत के कारण कुछ खास सामाजिक आधार मौजूद था।
गददाफी की सम्राज्यवाद विरोधी शैली के कारण उसके साम्राज्य को समाजवादी राज सत्ता की तरह देखा जा रहा था और अर्थव्यवस्था के बहुलांश हिस्से का राष्ट्रीयकरण करके तथा कम जनसंख्या व तेल के अपार रिजर्व भंडार के साथ गददाफी जनता को उच्च जीवन स्तर स्वास्थ्य व शिक्षा देने में सफल रहा।
सीरिया में भी, बाघ साम्राज्य का एक विशिष्ट सामाजिक आधार था। सीरियार्इ साम्राज्य अतीत में तत्कालीन सोवियत यूनियन की भांति, योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था के माडल पर आधारित था, जिसने 1960 व 1970 रके दशकों मे सार्थक विकास किए।
इसके अतिरिक्त इस तथ्य के काररण कि लीबियार्इ तथा सीरियार्इ क्रांतियां कुछ समय के लिए ठहराव का शिकार हो गर्इ।
लिबीया में छज्ब् द्वारा क्रानित पर जबर्दस्ती कब्जा कर लिए जाने तथा साम्राज्यवादी हस्तक्षेप ने जनता के विशिष्ट स्तर को गददाफी के पक्ष में ढकेल दिया। परन्तु गृहयुद्ध के कुछ महीनेां बाद टि्रपोलीर में हुआ जन विद्रोह साम्राज्य के पतन का कारण बना। सीरिया जो कि अभी तक उस स्तर तक नहीं पहुंचा है, परन्तु यह स्पष्ट है कि असद का शासन काल अब खत्म होने को है। प्रश्न इतना है कि कब और कैसे? यदि वर्तमान आंदोलन पराजित हो जाता है तो यह साम्राज्य कुछ समय तक के लिए बच जायेगा, परन्तु तब तक यह साम्राज्य कर्इ संकटों से घिरा रहेगा।
बहरहाल वर्तमान परिपेक्ष्य क्रानित की हार का दौर नहीं है। वास्तव में जैसे जैसे ये पकितयां लिखी जा रही है, सीरियार्इ साम्राज्य के âदयस्थल अलेप्पो व डमसकस तक फैलने वाली आम हड़ताल की योजना बन रही है। ठीक इसी समय, जब देश भर में जन विद्रोहों का सिलसिला जारी है तब सीरियार्इ सेना में सेना छोड़ कर जाने वाले सैनिकों की तादाद बढ़ती जा रही है। इस साम्राज्य ने अपनी सारी ताकत को क्रानित को निहत्था कर उसका गला मरोड़ने की तैयारी में झोंक दी है। परन्तु इसके बावजूद यह साम्राज्य उस जन समुदाय द्वारा चलाया जा रहा है। जो क्रानित के उत्थान के लिए लगे हुए हैं और साथ ही इस साम्राज्य को मरियामेट कर देने की आवश्यकता को समझ रहे हैं। अब तक, हड़ताल आंदोलन मुख्य औधोगिक संस्थानों तक नहीं पहुंच पाया है। जो कि क्रानित के सफल होने के लिए एक अति आवश्यक हैं।
यदि क्रानित के आàवान का कदम हकीकत मे बदल जाता है तो, उस पर कब्जा करने वाली ताकत के बगैर यह मझधार में अटकी पड़ी रहेगी। असद का साम्राज्य जरूर ढह जाएगा, परन्तु सवाल यह है कि इसका उत्तराधिकारी कौन होगा?
नेतृत्व का सवाल
जबकि सभी पूर्व वर्णित क्रनितयों ने विभिन्न रास्ते अखितयार किए है, तथापि सबके सामने एक ही सवाल मौजूं है इसका उत्तराधिकारी कौन होगा?
कुछ तथा कथित माक्र्सवादी, जो कि वैचारिक तौर पर पूर्व मित्र सैमुअल हंटिगटन की बोली बोल रहे हैं, वे सब अरब जगत में प्रतिक्रानित के डर से भयभीत हैं। वे पूरे साम्राज्य में ैब्।थ् तथा इस्लामिक राजनीति के उत्थान की शिकायत कर रहे हैं। उनमें से कुछ, जो कि इस तर्क के साथ मजबूती से खड़े है उन्होंने तो आगे बढ़कर यह घोषणा कर दी है कि क्रांति का पदार्पण ही नहीं होना चाहिए था।
इससे मजदूर आंदोलनों को संचालित करने वाली शकितयों के बारे में उनके वैचारिक दिवालियेपन का ही पता चलता है। इस्लामी भार्इ चारे तथा एकसीएएफ जैसी ताकतों का उत्थान किसी भी चीज से ज्यादा क्रांति की मुख्य कमजोरी यानि एक सुस्पष्ट नेतृत्व को दर्शाता है।
आज हम मिश्र में जिस प्रक्रिया को देख रहे है वह सभी क्रांतियों में देखने को मिलती है। बुनियादी तौर पर सत्ता मजदूरों की पहुंच में होती है या फिर सीधे उनके हाथ में ही होती है, परन्तु वे नहीं जानते कि उन्हें उसका करना क्या है। रूस व स्पेन की क्रांतियों में यह सिथति कर्इ बार देखने को मिली। ट्राटस्की ने इस बात को अपनी पुस्तक रूसी क्रांति का इतिहास के प्राक्कथन में वर्णित किया है।
जनता इंकलाब में सामाजिक पुर्नगठन के लिए नहीं उतरती हैं बलिक इस तीक्ष्ण भाव के साथ आती है कि वह पुरानी सत्ता को और अधिक बर्दाश्त नही कर सकती है। एक वर्ग के नेतृत्वकारी कतारों के पास ही राजनैतिक कार्यक्रम होता है। यहां तक कि इस कार्यक्रम को भी घटनाक्रमों द्वारा परखे जाने तथा जनता की स्वीकारोकित मिलने की आवश्यकता होती है। अतएव इंकलाब की बुनियादी राजनीतिक प्रक्रिया, सामाजिक संकट से उठ खड़े होने वाली समस्याओं के वर्ग की क्रमिक समझदारी से जुड़ी होती है।
फरवरी में जार को उखाड़ फेंकने के बाद, सत्ता रूसी मजदूर वर्ग के हाथ में आ गर्इ, परन्तु वे नहीं जानते थे कि वे उसका क्या करें। इस कारण, सत्ता उनके हाथ से फिसल गर्इ और अंतरिम सरकार द्वारा कब्जा ली गर्इ। इस अवसर को खो देने के बाद, जनता में निराशा की लहर, दौड़ पड़ी और, जुलार्इ-अगस्त के माह में पूरे रूस में प्रतिक्रियावाद हावी हो गया जिसने बोल्शेविक नेताओं को भूमिगत होने पर मजबूर कर दिया।
तथापि, सतह के भीतर एक नर्इ क्रांति की तैयारी चल रही थी। जनता, जिसके भीतर अंतरिम सरकार को लेकर काफी भ्रम थे, अपने अनुभवों से समझ चुकी थी कि यह सरकार उनकी सर्वाधिक बुनियादी मांगों को पूरा नहीं कर सकती थी और न ही जनवाद के बेहद बुनियादी रूपों की स्थापना कर सकती है। बोल्शेविक अपने धैर्यपूर्ण विश्लेषणों के जदिए समाजवादी क्रांति के कार्यक्रम को आम जनता के आंदोलन से जोड़ने में कामयाब रहे। उन्होंने यह घोषित किया कि रूसी जनता की मांगे सिर्फ एक ही सूरत में पूरी हो सकती हैं जबकि वह सत्ता स्वयं अपने हाथों में ले ले।
स्पेन की क्रांति में ऐसी हालत एक नहीं कर्इ बार पैदा हुर्इ। मजदूरों को प्रतिक्रांति को मात देने के लिए कर्इ-कर्इ बार उठ खड़ा होना पड़ा। कर्इ मौकों पर, सत्ता श्रमिक वर्ग के हाथों में आर्इ, लेकिन बार-बार, क्रांति के नेतृत्व द्वारा छलपूर्वक सत्ता बुर्जुआ वर्ग को सौंप दी जाती थी। स्पेन व रूस की क्रांति में अन्तर यह था कि स्पेन में कोर्इ बोल्शेविक पार्टी नहीं थी। स्पेन के माक्र्सवादियों ने अपनी खुद की गलतियों के कारण, वक्त रहते ऐसा कोर्इ संगठन बनाने में सफल नहीं हो सके और इसलिए जनता को विजय के पथ पर ले जाने का राह दिखाने का अवसर खो दिया।
अरब क्रांति में समान प्रक्रिया चल रही है। एक सच्चे क्रांतिकारी नेतृत्व के अभाव में निशिचत तौर पर आंदोलन में कर्इ मोड़ आयेंगे और इसके कष्टदायक अनुभवों तथा प्रयोग व गलती के सिद्धान्त के जरिए काफी सबक मिलेगा। मजदूरों के एक मजबूत संगठन के अभाव का अर्थ है-श्रमिक कर्इ इस्लामिक ताकतों या फिर उदारवादियों के चरित्र के बारे में भ्रमित रहेंगे।
परन्तु इसका ये अर्थ कतर्इ नहीं है कि प्रतिक्रांति जरूरी तौर पर विजयी होगी। इसके उलट, मिश्र में बुजुर्आवादियों के हाथ में आर्इ सत्ता, भविष्य के उफानों व क्रांतियों की गारंटी है। क्यों? क्योंकि ये वर्ग जनता की आकांक्षाओं को पूरा करने में समर्थ नहीं होगा।
हमारे प्रिय मित्र इस बात का उदाहरण देने के लिए कि क्यों अब इंकलाब की कोशिश तक नहीं ही जानी चाहिए, 1979 की र्इरानी क्रांति का हवाला देते हैं जिसे खुमैनी द्वारा अपहत तथा पराजित कर दिया गया था। परन्तु जो बात वे बताना भूल जाते हैं वह ये कि र्इरानी क्रांति की हार, चार सालों बाद ही यानि 1983 में हो पार्इ। उन वर्षों के दौरान मजदूर वर्ग के पास सत्ता पर काबिज होने के कर्इ मौके आए। परन्तु इस राह में मुख्य अवरोध थे स्तालीनवादी नेता तथा यह कि आंदोलन को उसके तार्किक परिणिती तक पहुंचाने के लिए कोर्इ वैकलिपक नेतृत्व गैर-मौजूद था।
आज टयूनीशिया तथा मिश्र का हिसाब-किताब कुछ इस प्रकार है: पिछले बसंत में जनता अपने स्वयं की ताकत के बल पर तथा तत्कालीन राजनीतिक ताकतों पर से उठ चुके भरोसे के कारण क्रांति के लिए निकल पड़ी। पर साथ ही, नेतृत्व के अभाव नतीजा यह हुआ इसके बाद क्या के सवाल के साथ चुनिंदा भटकाव भी पैदा हो गये।
दूसरे देशों में, पुराने शासक अभी भी सत्ता में बरकरार है परन्तु वे एक अत्यन्त अल्प सामाजिक आधार पर टिके हुए हैं और महज क्रांति की दया पर निर्भर हैं। वे जो भी पहलकदमी लेने की कोशिश करते हैं उसको जनता के दृढ़ प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है। आज यह दावा कि मिश्र, टयूनीशिया अथवा लीबिया में क्रांति का पतन हो गया है, क्रांति की वास्तविकता की विकृत समझदारी का परिचायक है। यह सोचना कि जिस आवाम ने आजादी का स्वाद चख लिया है वह यूं ही थम जायेगी और प्रतिक्रांति को आसानी से स्वीकार कर लेगी, बिना संघर्ष के, यह कहना महज एक प्रलाप होगा। इसके उलट, वर्तमान शकित संतुलन के बाबत प्रतिक्रांति हेतु किसी भी प्रकार के खुले गतिरोध की सफलता के बेहद क्षीण संभावनाएं हैं।
हमारे मित्र जिन्हें इस्लामी बंधुत्व की काली ताकतों के अलावा कुछ दिखार्इ नहीं देता, यह भूल जाते हैं कि क्रांति के दौरान कर्इ मौकों पर, संगठन के सदस्यों की विभिन्न कतारें, नेतृत्व के खिलाफ 180 अंश के कोण पर आ खड़ी होती हैं। नवम्बर के अंतिम सप्ताह में, यह विरोधाभास अपने चरम रूप में देखने को मिला जब बंधुत्व के सामान्य सदस्यों की तहरीर में सेना के साथ घातक मुठभेड़ हुर्इ।
लीबिया में भी हालांकि वर्तमान समय में, प्रतिक्रांति अपने चरम पर हैं, तब भी यदि कोर्इ भी प्रतिक्रियावादी ताकत सत्ता पर काबिज होती है तो उसे आत्मविश्वास से लबरेज जागृत जनता से दो-दो हाथ करना पड़ेगा।
इस्लामिक तथा अन्य प्रतिक्रियावादी ताकतों को अलौकिक शकितयों के रूप में चित्रित करना बेवकूफी होगी। मुख्य बात यह समझने की है कि ये ताकतें बुर्जुआ पार्टियों के विभिन्न प्रकारों का एक प्रारूप हैं जो पूंजी की सत्ता की वकालत करती हैं। परन्तु जब वे पूंजी की सत्ता की वकालत करती हैं तो उन्हें पूंजीवाद का तर्क भी स्वीकार कर लेना चाहिए जो वर्तमान में जनता को छोटी से छोटी और बुनियादी रियायत भी देने को तैयार नहीं हैं।
अगर ये सब दस साल पहले हुआ होता, तो वे बुर्जआ लोकतांत्रिक शासन का कोर्इ ढांचा गठित करने में शायद सफल भी हो जाते। वैशिवक पूंजीवाद में आया उछाल उन्हें किसी हद तक पैंतरेबाजी करने का मौका दे भी देता। परन्तु अब पूंजीवाद वैशिवक पैमाने पर भारी संकट में है। यह पूंजीवादी व्यवस्था जनता को अब कुछ नहीं दे सकती। ये अमेरिका तथा यूरोप के देशों जैसे आदर्श जीवन स्तर तथा रोजगार तक नहीं दे सकती। फिर मिश्र में उनसे ऐसी उम्मीद करने का आधार ही क्या है?
क्या करें?
हमने जो पहले अनुभव किया वह क्रांति और प्रतिक्रांति का एक लम्बा दौर था। एक ओर, बुजर्ुआ वर्ग की अतिशय कमजोरी और दूसरी ओर जनाधार समेत किसी क्रांतिकारी नेतृत्व का अभाव ये दोनों ही तीव्र गति से किसी निष्कर्ष पर पहुंच पाने की राह में क्रांति के लिए अवरोध साबित होंगे। इसकी बजाएं, जो हम देख रहे है वो यह है कि अस्थार्इ शासन व्यवस्थाएं एक के बाद एक जगह बना रही हैं।
अगर हम मिश्र में एससीएएफ जैसे क्षीण बोनापार्टियन सत्ता को आधार मानें तो वे अपना शासन सुसंगठित करने की हालत में नहीं है। क्रांति का आखिरी अध्याय लिखे जाने के पूर्व बहुत-सी लड़ाइयां लड़ी जानी हैं और हार-जीत के बहुत से अनुभव हासिल करने हैं।
इस पूरी प्रक्रिया का केन्द्र बिंदु श्रमिक वर्ग होगा। मजदूरों ने अपनी ताकत की झलक पहले ही दिखा दी है। उत्पादन साधनों के साथ उनके संबंधों के कारण मजदूर किसी भी राजसत्ता को अपंग कर सकते हैं। श्रमिकों की ताकत द्विमुखी है।
श्रमिकों की सर्वाधिक शकित न केवल पुरातन शासन व्यवस्था को गिराने में लगती हैं अपितु सामूहिकता के प्रति उनके स्वाभाविक आकर्षण के कारण वे भविष्य के समाज के निर्णायक तत्व हैं। अतएव श्रमिक वर्ग के संगठन व राजनैतिक स्तर का सुदृढि़करण क्रांति का प्रमुख कार्यभार बना रहेगा।
अंत में, प्रश्न नेतृत्व पर ही आ खड़ा होता है। इंकलाब की मुख्य कमजोरी है कामगार जनता तथा युवा वर्ग में वास्तविक माक्र्सवादी जनाधार का अभाव। यदि ऐसा कोर्इ नेतृत्व होता तो सत्ता कबकी कब्जे में ली जा चुकी होती। क्रांति की ताप में ऐसी किसी ताकत के निर्माण की संभावना से कोर्इ इंकार नहीं कर रहा परन्तु इस प्रश्न पर एक फौरी रास्ता आखितयार किया जाना अति आवश्यक है।
क्रांति ने दुनिया के करोड़ों लोगाें को उत्पे्ररित किया है। किसी भी व्यकित से ये पूछना काफी होगा कि क्या उसे याद है कि दुनिया 12 महीने पहले कैसी थी। पिछले साल, दर्जनों देशों में जन आंदोलन उठ खड़े हुए हैं। उनमें से कर्इ प्रत्यक्ष रूप से अरब क्रांति से प्रभावित हैं। मैडिसन, विसकोनसिन में, सैकड़ों लोग इस नारे के साथ सड़क पर उतर पड़े कि एक मिश्र के व्यकित की तरह लड़ों। स्पेन, ग्रीस तथा विश्व व्यापक कब्जा करो आंदोलनों में केन्द्रीय स्थलों पर कब्जा अरब क्रांति का ही विस्तार है। इस्त्राइल में ही सड़काें पर उतर आये सैकड़ों-हजारों लोगों का नारा है, विजय हासिल होने तक क्रांति। ये सब एक बार फिर दबे हुए वर्गीय प्रवृतित तथा प्रक्रिया के व्यापक परिपेक्ष्य को दर्शाता है।
विश्व के सभी कोनों में, पूंजीवाद की वैशिवक मंदी की समान प्रक्रिया चल रही है। समान प्रक्रिया के समान परिणाम निकल रहे हैं। इस प्रकार अरब दुनिया की क्रांति महज अरब जगत में होने वाली घटना नहीं है बलिक पूंजीवादी व्यवस्था के विरूद्ध वैशिवक क्रांति की शुरूआत है, उस व्यवस्था के विरूद्ध जो इस दुनिया की जनता के बहुसंख्यक हिस्से को उसकी बुनियादी जरूरतें मुहैया नहीं करा सकती है।
इस लेख में हमने अरब क्रांति के महज मुख्य देशों का हवाला दिया है। सत्य यह है कि सम्पूर्ण अरब जगत में, समान क्रांतिकारी प्रक्रिया विकसित हो रही है।
बहुत सारी विजयें हासिल की गर्इ है और हमें जीत हासिल करने के लिए कोशिश करते रहना चाहिए। कोर्इ भी प्रधान अन्तर्विरोध हल नहीं हुए हैं अभी और जब तक पूंजीवादी व्यवस्था विधमान है, वो कभी हल भी नहीं होंगे।
मुहम्मद बोअअजी क्रांति का पहला शहीद था। परन्तु जब से लेकर अभी तक अनगिनत पुरूषों व महिलाओं ने अपनी जान क्रांति के लिए गंवार्इ है। उनके बलिदान को सार्थक बनाने का एकमात्र तरीका है क्रांति को उसकी अंतिम परिणिती तक ले जाना, उसकी तार्किक परिणिती तक, यानि मनवता को उसके सर्वोच्च ऊंचार्इ तक पहुंचने में बाधा पहुंचाने वाली इस व्यवस्था को उखाड़ कर उसे एक समाजवादी व्यवस्था में बदल देना है।
हमारा नारा होगा:
अंतिम लक्ष्य : इंकलाब !
लेखक: हामिद आलिजादेह
अनुवादक: जया सजल